29 मार्च, 2023 को भारतीय लोक प्रशासन संस्थान (आईआईपीए), नई दिल्ली में डा. राजेंद्र प्रसाद द्वितीय स्मृति व्याख्यान के अवसर पर माननीय उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ का संबोधन।

नई दिल्ली | मार्च 29, 2023

डा. राजेंद्र प्रसाद द्वितीय स्मृति व्याख्यान देना वास्तव में एक सम्मान की बात है, एक तरह से यह किसी सपने के सच होने जैसा है। डा. साहब को देश के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में याद किया जाता है। लेकिन इससे अधिक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण यह है कि वह संविधान सभा के अध्यक्ष थे। उस हैसियत से डा. साहब ने सर्वोच्च मानक स्थापित किए जिनका सभी को अनुकरण करने की आवश्यकता है।

मित्रों, जैसा कि आप जानते हैं संविधान सभा का सत्र तीन वर्षों तक चला और उन तीन वर्षों के दौरान दुनिया ने उच्चतम गुणवत्ता वाले विचार-विमर्श, चर्चा और वाद-विवाद को देखा। एक चीज जो उस थिएटर से गायब थी, वह व्यवधान और अशांति थी। कुछ ऐसा जो वहां नहीं देखा गया, वह था - टकराव।

राष्ट्रीय ख्याति के इस संस्थान के अध्यक्ष के रूप में मैं यह स्वीकार करता हूं और इसकी सराहना करता हूं कि आईआईपीए प्रशासन और विद्वता को एक साथ लाता है। इस अमृत काल में जब देश विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है, हमें प्रशासनिक तंत्र की सहायता के लिए विद्वतापूर्ण दूरदर्शिता की आवश्यकता है। ऐसा सितंबर, 2022 में हुआ जब भारत को दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का गौरव प्राप्त हुआ था और यह इस कारण से भी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक उपलब्धि थी कि इस प्रक्रिया में हम अपने पूर्व औपनिवेशिक शासकों से आगे निकल गए।

हाल के वर्षों में, नागरिक प्रशासन की रूपरेखा बदल गई है। यह सामाजिक रूप से अधिक समावेशी हो गया है।

गत 8-9 वर्षों में सत्ता के गलियारों में एक बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है, इसे सत्ता के मध्यस्थों से मुक्त रखा गया है, इसे उन लोगों से भी मुक्त रखा गया है जो अतिरिक्त कानूनी माध्यमों से शासन प्रणाली का लाभ उठा सकते हैं और यह एक बड़ी उपलब्धि है जो हमारे शासन में प्रभावशाली रूप में प्रतिबिंबित हो रही है।

सुदूर गांवों से, सीधे-सादे परिवारों से, वंचित समुदायों से युवा प्रतिभाएं सिविल सेवाओं में शामिल हो रही हैं। मुझे प्रशिक्षुओं के साथ बातचीत करने का अवसर मिला है और खुद एक गांव से होने के नाते जो मैंने देखा है उसे मैं आपको बता सकता हूं कि शिक्षा का क्या अर्थ है और इसे प्राप्त करना कितना कठिन है, जब मैंने उन युवा प्रशिक्षुओं की प्रोफाइल देखी... यह अवलोकन एक जमीनी हकीकत है।

इन युवाओं ने गरीबी उन्मूलन और अपनी पूरी क्षमता को साकार करने के अवसरों को बेहतर बनाने में लोक प्रशासन की सकारात्मक भूमिका को करीब से देखा है। एक बड़ा बदलाव जो हुआ है, उसे मैं अपने युवा साथियों को बता सकता हूं कि अब हमारे पास पारितंत्र का क्रमिक विकास है। सरकार की सकारात्मक नीतियों के लिए धन्यवाद। वे दिन गए जब वित्तीय सहायता न मिलने या सरकारी नीतियों के आड़े आने के कारण एक युवा अपने विचारों को साकार नहीं कर पाता था।

यह देखकर भी प्रसन्नता होती है कि अधिक से अधिक प्रतिभाशाली युवतियां सिविल सेवाओं में शामिल हो रही हैं, वे लोक प्रशासन की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हैं। यह सिर्फ सिविल सेवा तक ही सीमित नहीं है, रक्षा सहित जीवन के सभी पहलुओं में महिलाओं की उपस्थिति देखी जा रही है और उनके प्रदर्शन से पुरुषों को भी ईर्ष्या हो रही है।

आज भारत अभूतपूर्व रूप से आगे बढ़ रहा है। यह बढ़ती आकांक्षाओं और नवाचारों से प्रेरित है और इसे हमारे नागरिकों की उपलब्धियों ने प्रमाणित किया है।

मित्रो, कुछ चीजें अत्यंत शांतिपूर्ण तरीके से हो रही हैं। उदाहरण के लिए, स्मार्ट सिटी की अवधारणा, आप उस अंतर को महसूस करते हैं।

उन जिलों की पहचान करना, वहां रहने वाले लोगों के लिए यह एक चुनौती थी और जैसा कि माननीय प्रधान मंत्री ने एक बार कहा था, कोई भी ऐसे जिले का जिलाधिकारी नहीं बनना चाहता था। अब वे वहां जाना चाहते हैं क्योंकि वे कुछ करने के लिए प्रेरित हैं और बदलाव हो रहा है।

इसे वैश्विक नजरिए से देखें। हम अवसर, नवाचार और निवेश के पसंदीदा वैश्विक गंतव्य हैं। हमारे नब्बे हजार प्रवर्तक स्टार्ट अप्स इस आश्चर्यजनक अभूतपूर्व सफलता में भागीदार हैं।

इस परिदृश्य में लोगों की अपेक्षाएं बढ़ेंगी और उन्हें बढ़ना भी चाहिए। जैसे-जैसे नागरिकों की अपेक्षाएं और आवश्यकताएं विकासात्मक उपलब्धि मानदंडों के आधार पर बढ़ती और बदलती हैं, यह जानकर खुशी होती है कि सेवा प्रदायगी दक्षताओं और संतुष्टि के स्तरों पर भी ठोस परिणाम दिख रहे हैं।

कुछ वर्ष पहले की बात करें तो भुगतान करने के लिए लंबी-लंबी कतारें हुआ करती थीं। हम उन्हें अब और नहीं देखते हैं। वैश्विक स्तर पर हम एक ऐसा देश हैं, जिसने नागरिकों को और नागरिकों को ही नहीं बल्कि वंचित वर्गों, चाहे वह किसान हों या आंगनवाड़ी में काम करने वाली महिलाएं हो, को भी अभूतपूर्व रूप से प्रत्यक्ष हस्तांतरण किया है, और यह एक बड़ी उपलब्धि और बड़ी राहत है।

आज नए भारत का मंत्र है 'न्यूनतम शासन, अधिकतम प्रशासन। कार्यपालिका "ईज ऑफ लिविंग" के बड़े उद्देश्य के साथ "ईज ऑफ डूइंग बिजनेस" को सुलभ बना रही है।

मैंने इसे स्वयं महसूस किया है। पश्चिमी बंगाल राज्य के राज्यपाल के रूप में, मैं ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के संबंध में 10 राज्यपालों के एक समूह का नेतृत्व कर रहा था और हम गंभीर विचार-विमर्श सत्रों में शामिल थे और यह जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है। लेकिन ये अप्रत्यक्ष, अनभिव्यक्त विकास हैं जो हमें सर्वाधिक प्रभावित करते हैं और जो हमारी कार्य क्षमता को अनूकूल बनाने में हमारी सहायता करते हैं।

आगामी 25 वर्ष, विशेष कर पिछले नौ वर्षों की वजह से देश के लिए महत्वपूर्ण होने जा रहे हैं। पिछले नौ वर्षों में हमने एक नींव रखी है, अनेक सकारात्मक उपाय किए हैं, ताकि 2047 में जब देश आजादी का शताब्दी वर्ष मना रहा होगा, तो हमें पहले स्थान पर रहना है और मेरे युवा साथी और 2047 के योद्धा वहां होंगे। संभव है कि हम में से कुछ लोग वहां न रहें, लेकिन हम सभी इस बात को लेकर बहुत आश्वस्त हैं कि जिस तरह का पारितंत्र विकसित हुआ है और जिस तरह की स्थिरता देखने को मिली है, इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत उस समय दुनिया में पहले स्थान पर होगा।

शासन एक गतिशील अवधारणा है और लोक प्रशासकों को नागरिकों की बदलती अपेक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप बने रहना होगा।

चूंकि हम वैश्विक मूल्य श्रृंखला के केंद्र बन गए हैं, इसलिए आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की मांगों को पूरा करने के लिए, एक नई उद्यमशील संस्कृति को बढ़ावा देने और नवाचार स्टार्ट अप की सहायता करने के लिए आने वाले वर्षों में डिजिटल प्लेटफॉर्म, कृत्रिम बुद्धिमता, बिग डेटा साइंस और इंटरनेट ऑफ थिंग्स जैसी उभरती प्रौद्योगिकियां लोक प्रशासन का एक अनिवार्य हिस्सा होंगी।

पिछले दो वर्षों में, कोविड के दौरान, हमने न केवल दवाओं, उपकरणों और टीकों के विकास और उत्पादन, अस्पतालों और ऑक्सीजन संयंत्रों की स्थापना के लिए अपनी क्षमताओं को बढ़ाया, बल्कि हमने महामारी के प्रसार की निगरानी के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म भी विकसित किए और सभी नागरिकों को टीकाकरण के डिजिटल प्रमाण पत्र प्रदान किए।

सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि प्रत्येक नागरिक को स्वास्थ्य देखभाल और सामाजिक सुरक्षा समान रूप से, दक्षतापूर्वक और शीघ्रतापूर्वक उपलब्ध कराई जाए। आपके पास पहले से अधिक चिकित्सा कॉलेज, अधिक अस्पताल, अधिक नैदानिक केंद्र, अधिक परा चिकित्सा कर्मचारी और नर्सिंग कॉलेज होंगे। स्वास्थ्य क्षेत्र के विकास की रफ्तार में कुछ ठहराव सा आ गया था। और जब महामारी ने हमें चुनौती दी, तो यह वास्तव में हमारे लिए सबसे बड़ी सहायता रही है।

हमें सही मायने में दुनिया का फार्मेसी कहा जाता है। मैं उसमें एक विशेषण जोड़ूंगा। हम दुनिया में सबसे प्रभावी फार्मेसी हैं, गुणवत्ता से समझौता किए बिना पैसे का सर्वोत्तम मूल्य देते हैं।

जब कोविड महामारी ने हमें चुनौती दी, तो हम अपनी सभ्यता से जुड़े लोकाचार को नहीं भूले। हमने अपने टीकों को उपलब्ध कराकर 100 से अधिक देशों को और उनमें से बहुत को मित्रवत भाव के रूप में मदद की। बहुत से लोग चिंतित थे कि क्या होगा, खासकर खाद्य सुरक्षा के संबंध में क्या होगा।

मित्रों, जबकि यह सब हो रहा है, मुझे एक बात साझा करनी है और मैं आप सभी सम्मानित दर्शकों के साथ इस चिंताजनक प्रवृत्ति साझा करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूं। हमें बदनाम करने के लिए भारत के मूल्यों, अखंडता और इसकी संस्थाओं पर सुव्यवस्थित इनक्यूबेटर के माध्यम से तीव्र हमला हो रहा है।

वैश्विक शक्ति के रूप में भारत के उत्थान के विरूद्ध एक पारितंत्र को आकार और पोषण दिया जा रहा है।

एक राष्ट्र के रूप में भारत की वैधता और इसके संविधान पर हमला करना कुछ बाहरी संस्थाओं का पसंदीदा विषय है।

देश के उद्योगपतियों के लिए मेरे मन में एक सम्मान का भाव है, वे देश के विकास में योगदान दे रहे हैं। लेकिन कभी-कभी सर्वोत्कृष्ट मस्तिष्क को भी सावधान रहने की जरूरत होती है।

भारत के कुछ अरबपति और बुद्धिजीवी परिणाम की परवाह किए बिना इन संस्थाओं को वित्तपोषित करके इस तरह के विनाशकारी षडयंत्रों के शिकार हो गए हैं।

यदि वे बाहर जाने के बजाय हमारे उत्कृष्ट आईआईटी और आईआईएम संस्थाओं के लिए वित्तीय योगदान करें, तो उनकी उदारता का अधिक लाभकारी रूप से उपयोग किया जा सकता है। इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। वे ऐसा क्यों करते हैं? एक व्यक्ति के रूप में मेरा दृढ़ विश्वास है कि सीएसआर फंड जो भी हो, उसका उपयोग देश के भीतर ही होना चाहिए। मैं आंकड़े नहीं देना चाहता लेकिन जब मुझे पता चलता है कि किसी अरबपति ने अमेरिका में एक संस्थान को 200 करोड़ रुपये दिए हैं या 2008 में स्वयं भारत सरकार ने 20 करोड़ दूसरे संस्थान को दिए, तो हमें अपनी सोचने के तरीकों पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है, हमें किसी और से प्रमाणन की आवश्यकता नहीं है। सबसे अच्छा सहयोग देश के भीतर हमारे अपने लोगों द्वारा ही होना चाहिए।

मैं उद्योग और बुद्धिजीवियों में संभ्रांत वर्ग से विचारशील बनने की उत्कट अपील करता हूं। इसमें कोई आरोप का भाव नहीं है बल्कि सिर्फ चेतावनी है क्योंकि उनका आशय निश्चित रूप से भारत के विरूद्ध नहीं है।

भारत गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति, राजेंद्र बाबू संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में हमारे संविधान के निर्माण से निकटता से जुड़े थे। राज्यसभा के सभापति के रूप में, मैं उनसे जुड़ा हुआ महसूस करता हूं, उन्हें लगभग हर दिन याद करता हूं। उनमें कोई बहुत खास बात रही होगी कि उन्होंने संविधान सभा में ऐसी स्थिति पैदा की कि विचार-विमर्श, संवाद, चर्चा और वाद-विवाद के दौरान विवादित मुद्दों, विभाजनकारी मुद्दों को बाहर कर दिया गया। साथ ही कोई व्यवधान भी नहीं हुआ।

मैं इस देश की राजनीति से जुड़े लोगों से अपील करता हूं। लोगों की बुद्धि को कभी कम मत आंकिए। वे सब जानते हैं कि क्या हो रहा है, वे बहुत समझदार हैं।

उनके लिए इससे ज्यादा चिंता की बात कोई और नहीं हो सकती जब संसद, जिसे चलाने में राजकोष से बड़ा व्यय होता है और यह लगातार कई दिनों तक कार्य नहीं करती, तो यह बहुत कष्टकारी है। वे हमें जवाबदेह बनाना चाहते हैं। यह कितना मिथ्याभासी है कि सरकार को जवाबदेह बनाए रखने के लिए प्रतिनिधियों को संसद भेजा जाता है और वे उस क्षण अलग विचार में लगे होते हैं।

किसी व्यक्ति के लिए संसद से बड़ी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कोई नहीं हो सकती। कारण स्पष्ट है। संसद सदस्यों को नागरिक और आपराधिक कार्रवाई से छूट प्रदान की जाती है।

मुझे स्मरण है कि 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा में अपने विदाई भाषण में डा. राजेंद्र प्रसाद ने एक टिप्पणी की थी, जो मुझे याद है कि भविष्यवाणी साबित हुई । उन्होंने कहा:

“संविधान एक यंत्र के समान एक निष्प्राण वस्तु ही तो है। उसके प्राण तो वे लोग हैं जो उस पर नियंत्रण रखते हैं और उसका प्रवर्तन करते हैं और देश को आज तक ऐसे ईमानदार लोगों के वर्ग से अधिक किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है जो अपने सामने देश के हित को रखें।"

अपनी स्वतंत्रता के इस अमृत काल में हमें राजेंद्र बाबू की गंभीर समुक्तियों की पृष्ठभूमि में एक ईमानदार मूल्यांकन करना चाहिए।

राज्य के तीनों अंगों को संविधान से वैधता मिलती है। यह उम्मीद की जाती है कि संविधान की प्रस्तावना में वर्णित संवैधानिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ये तीनों अंग एक सहयोगी तालमेल विकसित करेंगे।

संवैधानिक शासन इन तीनों अंगों के मध्य स्वस्थ परस्पर क्रिया में गतिशील संतुलन प्राप्त करने के बारे में है।

मित्रों, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच हमेशा मुद्दे रहेंगे, वे होने की वाले हैं क्योंकि हम गतिशील समय में हैं। लेकिन इन सभी मुद्दों पर एक योजनाबद्ध रीति से संविधान की भावना, संविधान के बोध को ध्यान में रखते हुए, टकराव के माध्यम से तो बिल्कुल भी नहीं, निर्णय लिया जाना चाहिए।

लोकतांत्रिक राजनीति मुख्य रूप से निर्वाचित विधायिका को कानून बनाने की शक्ति प्रदान करती है जो लोगों की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को दर्शाती है। मैं कभी भी संदेह में नहीं रहा, न तो राज्य सभा और न ही लोक सभा में सर्वोच्च न्यायालय के किसी निर्णय पर विवाद हो सकता है क्योंकि यह संसद का कार्य नहीं है, यह न्यायपालिका का विशेष क्षेत्र है। इसी प्रकार, कार्यपालिका और विधायिका के लिए कुछ विशेष परिरक्षित विषय हैं। इन संस्थाओं को अपने संबंधित क्षेत्रों का ईमानदारी से पालन करने की तत्काल आवश्यकता है।

जनता के जनादेश की प्रधानता है, यह जनता की इच्छा है जिसे प्रचालन में रहना होता है, जो उनके प्रतिनिधियों के माध्यम से एक वैध मंच पर परिलक्षित होता है और यह मेरे अनुसार अलंघनीय है।

विधि निर्माण संसद का अनन्य विशेषाधिकार है और किसी अन्य पक्ष के द्वारा इसका विश्लेषण, आकलन या हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है। विधायिका के उद्देश्य को कमजोर करने का कोई भी प्रयास एक ऐसी स्थिति उत्पन्न करेगा जो स्वस्थ नहीं होगी और नाजुक संतुलन को बिगाड़ देगी।

मैंने रचनात्मक संवाद के बारे में संकेत दिया था, लेकिन अब जब से हमने सार्वजनिक क्षेत्र में देखा है कि वहां इन संस्थाओं के शीर्ष पर बैठे लोगों द्वारा अभिव्यक्त विचारों का प्रभाव है, मैं अपील करूंगा कि एक निश्चित तंत्र के विकास पर आधारित गंभीर विचार होना चाहिए ताकि संस्थाओं के शीर्ष पर बैठे लोग समय-समय पर अपनी विचार प्रक्रिया का आदान-प्रदान करने की स्थिति में रहें और इससे देश के लिए अत्यंत आवश्यक सौहार्द उत्पन्न होगा।

मैं एक उदाहरण के रूप में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का संदर्भ देता हूं। संसद में सर्वसम्मति थी, लोक सभा ने इसके लिए मतदान किया और इसमें कोई भी सदस्य अनुपस्थित नहीं रहे, वहीं राज्य सभा ने इसके लिए मतदान किया और सिर्फ एक सदस्य अनुपस्थित रहे। जैसा कि संवैधानिक रूप से आवश्यक है, 16 राज्य के विधानमंडलों ने इसका समर्थन किया। देश के माननीय राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 111 के अधीन अपने संवैधानिक प्राधिकार का उपयोग करते हुए इस पर हस्ताक्षर किए और इसने संवैधानिक निर्देश का रूप ले लिया। मुझे राज्य सभा के सभापति के रूप में आश्चर्य है, इसका क्या हुआ, कोई इसे हमारे पास वापस लेकर नहीं आया। मुझे विश्वास है कि आप जैसे संस्थान, देश के बुद्धिजीवी इस ओर आपका ध्यान केंद्रित करेंगे।

विधि निर्माण में किसी बुनियादी ढांचे का आधार संसद को सर्वोच्चता होनी चाहिए... जिसका तात्पर्य लोगों की सर्वोच्चता है।

जहां तक न्यायाधीशों के चयन में भारत के मुख्य न्यायाधीश की सहमति के मुद्दे का संबंध है, जब हमें डा. राजेंद्र बाबू की अध्यक्षता वाली ऐसी शानदार संविधान सभा द्वारा यह संविधान सौपा गया था, तो संवैधानिक निर्देश परामर्श का था। एक न्यायिक आदेश से यह परामर्श सहमति बन गया। हमारे संविधान का अनुच्छेद 370 एक ऐसा अनुच्छेद है जिसमें परामर्श और सहमति दोनों शब्दों का उपयोग किया गया है, जिसका तात्पर्य है कि शब्दकोष में इन शब्दों के अर्थों की परवाह किए बिना परामर्श और सहमति के बीच एक मूलभूत अंतर है। न्यायपालिका का निर्णय था कि परामर्श ही सहमति होगी। उस मुद्दे पर मुझे याद आता है कि डा. अंबेडकर ने 24 मई 1949 को संविधान सभा में इस तरह के सुझाव का पुरजोर विरोध किया था:

“मुख्य न्यायाधीश की सहमति के संबंध में मुझे यह दिखाई देता है कि जो लोग इस प्रस्ताव के समर्थन में हैं उनका मुख्य न्यायाधिपति की निष्पक्षता और ठीक निर्णय पर विश्वास है। मेरी अपनी यह धारणा है कि मुख्य न्यायाधिपति निस्संदेह एक प्रख्यात व्यक्ति होगा। मेरी अपनी यह धारणा है कि नि:संदेह न्यायाधिपति बहुत ही प्रख्यात व्यक्ति होगा। (... और इस समय हमारे पास एक ऐसे व्यक्ति हैं। निष्कलंक छवि वाले व्यक्ति। राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर ... बहुत बड़े विद्धान व्यक्ति)। किन्तु फिर भी न्यायाधिपति में भी साधारण मनुष्यों की कमजोरियों तथा भावनाएं होंगी। मेरे विचार से न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में मुख्य न्यायाधिपति के मत को मानने का अर्थ यह होगा कि उसे वह अधिकार प्राप्त हो जायेगा जो हम न तो राष्ट्रपति को और न तत्कालीन सरकार को देने के लिए तैयार हैं। इसलिये मेरे विचार से यह भी एक खतरनाक प्रस्ताव है।"

मित्रों, ऐसे भी लोग हैं जो हमारे देश में लोकतंत्र के फलने-फूलने को साझा नहीं करते हैं। जो अर्थव्यवस्था की वृद्धि और विकास के पथ पर अग्रसर होने की हमारी खुशी को साझा नहीं करते हैं, और इसलिए वे समस्या पैदा करना चाहते हैं। और वे ऐसा इसे सोशल मीडिया पर ले जाकर, लेख लिखकर तथा देश में तथा ज्यादातर देश के बाहर भी और ऐसे संस्थानों जिन्हें सामान्यत: हमारे अरबपतियों द्वारा आर्थिक रूप से सहायता प्राप्त होती है, में सेमिनार आयोजित करके करते हैं। और ऐसी स्थिति होने के कारण में आग्रह करुंगा कि हमें अत्यधिक सतर्क रहना होगा क्योंकि यदि हम समय पर उपाय नहीं करते हैं और चुप्पी साधे रखते हैं, तो यहां तक कि मूक संख्यक को भी चुप करा दिया जाएगा और हम ऐसा करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं।

एक और पहलू जिस पर मैं चाहता हूं कि बुद्धिजीवी और आम लोग व्यापक रूप से राजनीतिक इकोसिस्टम पर दबाव डालें- हमें सभी मुद्दों को राजनीतिक साझेदारी के साथ देखने की जरूरत नहीं है। उदाहरण के लिए हमारे न्यायिक निर्णयों को राजनीतिक या पक्षपातपूर्ण रुख के साथ नहीं देखा जा सकता है।

यह अनिवार्य है कि विधानमंडल के सदस्य अपने विधायी दायित्वों और दलगत बाध्यताओं के बीच अंतर रखें। राजनीतिक रणनीति के हिस्से के रूप में लंबे समय तक व्यवधान और अशांति की सराहना नहीं की जा सकती। जो लोकतंत्र के मूलतत्व के विपरीत है, जो हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करता है, वह राजनीतिक रणनीति कैसे हो सकती है।

हमारे विधायी निकायों को नेतृत्व प्रदान करना चाहिए, सार्वजनिक नीति के लिए वैचारिक रूपरेखा निर्धारित करनी चाहिए और समाज के व्यापक कल्याण के लिए लोक प्रशासन का मार्गदर्शन करना चाहिए।

और मैं सावधानी और चिंता की भावना के साथ कहता हूं कि यदि लोकतंत्र के ये मंदिर - ये स्थान जहां वाद-विवाद को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए, वे व्यवधान, अशांति के सामने झुकते हैं, तो आसपास के लोग इस रिक्तता को भरने के लिए आगे आएंगे, इसलिए किसी भी सरकार या लोकतंत्र के लिए यह एक खतरनाक प्रवृत्ति होगी। हम जिन मुद्दों का सामना कर रहे हैं, उन्हें इन जगहों में सुलझाने की आवश्यकता है। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो कोई और यह काम करेगा और यह संविधान की भावना के अनुरूप नहीं होगा और हम स्वर्ग में हमारे संस्थापकों पर अनावश्यक दबाव डालेंगे।

डा. राजेंद्र प्रसाद ने भारत को चलाने के लिए स्वयं से पहले देश में रुचि रखने वाले ईमानदार लोगों के एक वर्ग की अपेक्षा की थी। इस अमृत काल में मैं कामना करता हूं कि हम राजेंद्र बाबू की उदात्त इच्छाओं के साथ जीवन यापन करें।

यह जानकर प्रसन्नता होती है कि सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास की भावना से निर्देशित अधिक समावेशी विकास से शासन का मानवीय स्वरूप दिखाई दे रहा है।

मैं आपके प्रयासों के लिए शुभकामनाएं देता हूं।

जय हिन्द