22 सितंबर, 2022 को गुवाहाटी में प्रजना प्रवाह द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी 'लोकमंथन' के तीसरे संस्करण में माननीय उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ का संबोधन।

गुवाहाटी | सितम्बर 22, 2022

"मुझे आज गुवाहाटी में लोकमंथन के तीसरे संस्करण के इस उद्घाटन सत्र में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि लोकमंथन 2022, लोकपरम्परा की थीम के साथ, उत्तर पूर्वी भारत की संस्कृति और लोकाचार का उत्सव मना रहा है और भारत की कई ऐतिहासिक परंपराओं को मान्यता प्रदान करने के लिए देश के विभिन्न भागों से आए कलाकारों, बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों के बीच संवाद की सुविधा प्रदान कर रहा है।
मैं हमारे पारंपरिक ज्ञान के छिपे हुए खजाने को सामने लाने के लिए वर्षों से इस राष्ट्रीय स्तर के संवाद के आयोजन के लिए प्रज्ञा प्रवाह की सराहना करता हूं। स्थानीय आयोजकों, इंटलेक्चूअल फोरम ऑफ नॉर्थ ईस्ट (आईएफएनई) और असम पर्यटन विकास निगम (एटीडीसी) को उनके गंभीर उपयोगी प्रयासों के लिए हार्दिक बधाई।
भारत में वाद-विवाद, चर्चा, ज्ञान साझा करने, सार्वजनिक प्रवचन और बौद्धिक विचार-मंथन की एक महान और अद्वितीय विरासत रही है। प्राचीन काल में, ऐसी एक स्वस्थ परंपरा थी जहाँ विभिन्न धार्मिक, दार्शनिक और नैतिक मुद्दों की परख के लिए वाद-विवाद आयोजित किया जाता था। भगवद गीता जैसे भारतीय महाकाव्य संवाद के रूप में नैतिकता और दर्शन पर गहन चिंतन हैं।
संवाद, वाद-विवाद और चर्चा शासन की आत्मा हैं। इस संबंध में समसामयिक परिदृश्य, विशेष रूप से विधायिका में, चिंताजनक है। हमारे समृद्ध अतीत के अनुभव का लाभ उठाकर संपूर्ण पारितंत्र का उत्थान किया जा सकता है।
महान बृहद्वाराण्यका उपनिषद स्वयं याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद जैसी चर्चाओं पर आधारित है, जिसमें ऋषि गार्गी वाचकन्वी एक दार्शनिक वाद-विवाद में भाग लेते हैं, ऋषि याज्ञवल्क्य को आत्मा के मुद्दे पर पेचीदा सवालों के साथ चुनौती देते हैं।
लोकमंथन के माध्यम से हमारी सदियों पुरानी भारतीय संवाद परंपरा को पुनर्जीवित और पुनरूद्धार करने का प्रयास किया गया है। संवाद की हमारी अवधारणा केवल सूचना का संप्रेषण नहीं है अपितु सकारात्मक और रचनात्मक संप्रेषण है।
लोगों के बीच चर्चा और संवाद की पुरातन समृद्ध परंपरा को पुनर्जीवित करने के साथ ही इसके समक्ष उपस्थित विभिन्न खतरों से इसका संरक्षण किया जाना चाहिए। स्वयं को दूसरे से बेहतर दर्शाने और जनता की नजरों के केन्द्र में बने रहने की आपाधापी में टेलीविजन या सोशल मीडिया पर चलने वाली बहस कर्कश लड़ाई के मैदानों में बदल रही हैं।
अन्यि लोगों के विचारों के प्रति असहिष्णुता विचारों के मुक्त आदान-प्रदान के स्वस्थ दृष्टिकोण के विपरीत है। इस प्रवृत्ति को नियंत्रित किए जाने की आवश्यकता है ताकि सामाजिक सद्भाव समृद्ध हो सके।
यहां मीडिया को पहल करनी चाहिए - उन्हें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए तथा विशिष्ट, मौलिक और हाशिए पर रहने वाले लोगों की आवाज बनकर उन्हें मुख्यधारा में लाने का प्रयास करना चाहिए ।
हमें सामाजिक संरचनाओं और सोशल मीडिया के सीमित दायरे से बाहर आने के साथ ही हमारे मन में नए विचारों को आने का मार्ग प्रशस्त करना होगा। हमें सुनने की कला को पुनर्जीवित करना चाहिए; हमें संवाद की कला को फिर से खोजना होगा।
हमारे देश में बुद्धिजीवियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। ऐतिहासिक रूप से, ऋषि - उस समय की अत्यधिक प्रबुद्ध आत्माएं - राजाओं और राजघरानों को राजनीति और नीति के विभिन्न पहलुओं पर परामर्श देते थे। इन विचारशील लोगों को सभी वर्गों के लोगों द्वारा सुना जाता था जिससे, समाज में सद्भाव और स्थिरता सुनिश्चित होती थी और देश के कानून को वैधता प्राप्त होती थी।
इस पृष्ठभूमि में, यदि हमारे बुद्धिजीवी वर्तमान समय में मौन रहने का निर्णय लेते हैं, तो समाज का यह अत्यधिक महत्वपूर्ण वर्ग हमेशा के लिए चुप कर दिया जाएगा। उन्हें स्वतंत्र रूप से संवाद और विचार-विमर्श करना चाहिए ताकि सामाजिक नैतिकता और शिष्टाचार संरक्षित रहे।
बुद्धिजीवियों द्वारा संवाद और चर्चा का अग्रसक्रिय रुख अपनाने से लोकतांत्रिक मूल्य और मानवाधिकार निश्चित रूप से समृद्ध होंगे।
हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की प्रधानता, जिसे अन्य आधुनिक राष्ट्रों ने प्राप्त करने में काफी अधिक समय लिया है, स्वतंत्र और स्वस्थ चर्चा के महत्व का प्रमाण है जिसे हमने लंबे समय से संजोया है। अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र का अमृत है।
संविधान सभा के वाद-विवाद कई समृद्ध और पेचीदा द्वंद्वात्मकता से परिपूर्ण है जो दर्शाता है कि भारत के निर्माताओं ने विचार-विमर्श तंत्र पर अत्यधिक बल दिया है। यह तंत्र स्वयं वर्तमान के कई मुद्दों के समाधान का मार्ग प्रशस्त करता है।
संविधान निर्माताओं ने तीन संस्थाओं - विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक स्वस्थ संतुलन की परिकल्पना की है - तीनों के बीच तालमेल पर बल दिया है। यहां भी, बुद्धिजीवियों की सकारात्मक भूमिका स्वस्थ परिणामों में फलीभूत होगी।
चाहे विधिक समुदाय हो, जनप्रतिनिधि हो, कार्यपालिका हों या नागरिक समाज के अच्छे विचारक हों, प्रत्येक को विचार-विमर्शी तंत्र के माध्यम से राज्य की तीनों शाखाओं के सामंजस्यपूर्ण कामकाज को सुनिश्चित करना होगा। एक के द्वारा दूसरे के अधिकार क्षेत्र में कोई भी अतिक्रमण चाहे वह कितना ही गैर-आक्रामक, सूक्ष्म और सदाशयपूर्ण हो, लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को अस्तव्यस्त करने की क्षमता रखता है।
छद्म बौद्धिकता,जहां कुछ व्यक्ति केवल घटना प्रबंधन के माध्यम से प्रतिष्ठित स्थिति प्राप्त कर लेते हैं और तार्किकता का मार्ग अवरुद्ध करते हैं, एक ऐसी प्रवृत्ति है जिस पर अंकुश लगाया जाना चाहिए।
पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से पात्र लोगों को पद्म पुरस्कार प्रदान किया जाना एक ऐसा संतोषजनक पहलू है जिसकी व्यापक रूप से सराहना की गई है।
एक राष्ट्र के रूप में, हम एक ऐसे साझा सांस्कृतिक सूत्र से बंधे हैं जो देश के सभी क्षेत्रों में एकता और मजबूती प्रदान करता है और जिसे सभी जगह महसूस किया जाता और जो सर्वकालिक प्रासंगिक है। हमारी संस्कृति की यह समानता हमारे आम लोगों के जीवन में प्रकट होती है। जैसा कि डॉ. अम्बेडकर ने संक्षेप में कहा हैं, 'संस्कृति की एकता ही समरूपता का आधार है। इसे अनुदत्त मानते हुए, मैं यह कहने का साहस कर सकता हूं कि विश्व का ऐसा कोई देश नहीं है जो संस्कृति की एकता के संबंध में भारतीय प्रायद्वीप का प्रतिस्पर्धी बन सके।'
'अद्वितीय सांस्कृतिक एकता' का सौन्दर्य और सुदृढ़ता हमारे राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक पहलू में परिलक्षित होते हैं। । सांसारिक, धर्मनिरपेक्ष मामलों से लेकर उच्च आध्यात्मिक पहलुओं तक -बुवाई के मौसम में किसानों द्वारा गाए जाने वाले गीतों से लेकर पर्यावरण के प्रति हमारे समग्र दृष्टिकोण तक भारतीयता की अंतर्निहित एकता को महसूस किया जा सकता है।
भारत के सभ्यतागत लोकाचार में 'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना देखी जा सकती है - हम संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानते हैं। समय की कसौटी पर खरा उतरी यह विशिष्टता आंतरिक और बाहरी शांति बनाए रखने में हमारी मार्गदर्शक रही है। हमें 'मूल्य आधारित शिक्षा' के माध्यम से ज्ञान के इन मोतियों को अपनी भावी पीढ़ियों तक पहुंचाना चाहिए।
यह जानकर हर्ष की अनुभूति हो रही है कि लोकमंथन का यह संस्करण गुवाहाटी में आयोजित किया जा रहा है और इस खूबसूरत क्षेत्र की संस्कृति को भारत की संस्कृति के अभिन्न अंग के रूप में दर्शाया गया है। इस क्षेत्र में सांस्कृतिक प्रथाओं की विविधता अनूठी है। तथापि, वे सभी शांति, सद्भाव और सार्वभौमिक भाईचारे के सर्वोत्कृष्ट भारतीय मूल्यों से परिपूर्ण हैं।
जब हम आत्मविश्वास के साथ 21वीं सदी में आगे बढ़ रहे हैं, तो हमारे लिए यह अति महत्वपूर्ण है कि हम 'जनसांख्यिकीय लाभांश' - हमारी मेधावी युवाशक्ति को किसी औपनिवेशिक खुमार से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से सोचने में समर्थ बनाए। उन्हें संकीर्ण, विभाजनकारी प्रवृत्तियों के विरुद्ध एकता, सद्भाव और सार्वभौमिक भाईचारे के हमारे राष्ट्रीय मूल्यों को बनाए रखने हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। हमें अपने युवाओं को न केवल समुचित कौशल से अपितु समुचित मानसिकता से भी सशक्त बनाना चाहिए।
जैसा कि हम भारत की विविध परंपराओं से अवगत हैं, मैं आशा करता हूं कि हम खुले मन और तार्किकता की भावना के साथ उन पर विचार करें। एक समाज के रूप में यह आवश्यक है कि हम स्वयं के इतिहास की भावना विकसित करें, जिसमें लोक परंपराएं, स्थानीय कला रूप और असंख्य बोलियां शामिल हैं। केवल तभी हम मन और आत्मा से स्वतंत्र हो सकते हैं।
यह जानकर हर्ष की अनुभूति हो रही है कि आगामी दिनों में कई सत्रों का आयोजन किया जाएगा, जिनमें अन्य सांस्कृतिक प्रदर्शनों के बीच कृषि, शिक्षा, संस्कृति, पर्यावरण में भारत की परम्परा को प्रदर्शित किया जाएगा। मुझे विश्वास है कि ये सत्र हमें अपनी परंपराओं को संरक्षित करने और उन्हें सुदृढ़ करने संबंधी हमारे कर्तव्य का स्मरण कराएंगे।
इस अत्यंत महत्वपूर्ण संवाद कार्यक्रम के शुभारंभ सत्र को संबोधित करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। मेरा विश्वास है कि यह सत्र युवाओं के मन में अन्वेषण की भावना को प्रोत्साहित करने मे सहायक सिद्ध होगा।
मैं आयोजकों और प्रतिभागियों को कार्यक्रम की सफलता- इस कार्यक्रम और लोकमंथन के भविष्य के संस्करण के लिए - उनके प्रयासों के लिए शुभकामनाएं देता हूं।
धन्यवाद! जय हिन्द!"