नमस्कार!
राजस्थान राज्य के माननीय राज्यपाल, परम आदरणीय श्री कलराज मिश्रा जी की यहां उपस्थिति पृथ्वी के सबसे बड़े लोकतंत्र, जो विश्व की कुल जनसंख्या के छठवें भाग का निवास-स्थल है, के लिये ज्ञानवर्धक रही है, यहाँ ऐसे बहुत कम ही लोग होंगे जो उनके अनुभव, प्रदर्शन और योगदान की बराबरी कर सकें। उन्हें संसद की दोनों सभाओं और उत्तर प्रदेश विधानसभा और विधान परिषद में अपनी सेवाएं प्रदान करने का अवसर मिला है। उनके कार्यकारी पक्ष को देखा जाये, तो उन्होंने उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार में एक वरिष्ठ मंत्री के रूप में योगदान दिया है। उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण संगठनों में पद संभाले हैं। राजस्थान राज्य में राज्यपाल का पद संभालना उनके लिए नहीं, बल्कि उस पद का सम्मान है। महोदय, हम आपके प्रबुद्ध ज्ञान के लिए आभारी हैं। आपने पूरे परिदृश्य को विस्तार से बताया है और मुझे यकीन है कि आपने हमें काफी विचारणीय विषय दिए हैं। आप हमारा मार्गदर्शन करेंगे, हमें प्रोत्साहित और प्रेरित करेंगे। हम कामना करते हैं कि आप वर्षों तक स्वस्थ रहें और सार्वजनिक जीवन में कार्यरत रहें।
लोक सभा के माननीय अध्यक्ष श्री ओम बिड़ला जी, यह एक अद्वितीय और दुर्लभ सम्मान है जब आप दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, लोकतंत्र की जननी का अध्यक्ष बनते हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक खामियों के बावजूद श्री ओम बिड़ला ने सांसदों के दिल में जगह बनाई है, उन्होंने इसके लिए एक ऐसा अभिनव तंत्र विकसित किया है जिससे कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि संसद के प्रत्येक सदस्य को सभा में बोलने का समुचित अवसर मिले, ऐसे कई अवसर आये हैं जब श्री ओम बिड़ला जी के लिए कठोरता आवश्यक हो गया, लेकिन उन्होंने केवल प्रेरणात्मक तंत्र का ही सहारा लिया। उन्होंने वैश्विक स्तर पर भी अपना योगदान दिया है, उन्होंने कई देशों का दौरा किया है। और उपराष्ट्रपति के रूप में मुझे यह जानकर खुशी हुई कि कुछ वैश्विक नेताओं ने उनके बारे में काफी शानदार ढंग से विचार व्यक्त किये हैं। उनकी यहां मौजूदगी और उनका शासन-प्रणाली का हिस्सा बनना हम सबके लिए वरदान है। मैंने राज्यसभा के सभापति के रूप में उनमें एक साधारण व्यक्ति को देखा है, लेकिन जब तंत्र बदलने की बात आती है तो उनका व्यक्तित्व काफी प्रभावी और दृढ़ होता है और यही कारण है कि पहले विषय के संबंध में मैं आपका ज्यादा समय नहीं लूंगा। श्री बिड़ला जी ने बड़े पैमाने पर लोगों की मदद के लिए डिजिटल पहलुओं एवं प्रतिनिधियों प्रौद्योगिकीय सशक्तिकरण के लिये काफी विस्तार से विचार किया है। वह विधायिका को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखते। उस अर्थ में हम भाग्यशाली हैं कि हमें ऐसा लोक सभाध्यक्ष मिला जिसका दृष्टिकोण राजनीतिज्ञ जैसा है।
डॉ. सीपी जोशी आभूषण में एक और मणि के समान हैं, उनमें राजनीति और लोक सभाध्यक्ष के रूप में अपने कार्य इन दोनों चीजों में स्पष्ट अंतर रखने की विलक्षण क्षमता है। जब उन्हें लोक सभाध्यक्ष का पद मिला है, तो वे राजनीतिक चश्मे से नहीं देखते हैं और इसलिए, राज्य विधानमंडल जो हमारे देश में अत्यधिक विभाजनकारी राजनीति को देखते हुए आम तौर पर चिंतन से परे है, में कई पदों को धारण करके वे कुछ हद तक एक आदर्श बन गए हैं, लेकिन अपने क्षेत्र के प्रति उनका प्रेम हर बार झलकता है। उदयपुर और नाथद्वारा उनके दिमाग से कभी नहीं निकलते।
श्री सतीश महाना, मुझे 1989 में लोकसभा का सदस्य बनने का अवसर मिला था, लेकिन जितने महीने मैंने लोकसभा में बिताए, उससे दोगुने महीने श्री महाना ने विधानमंडल में बिताए हैं, तीन दशक से भी अधिक समय से विधायक रहे हैं, लेकिन उनके बारे में जो बात सामने आती है एवं जो बात यहां मौजूद प्रत्येक स्पीकर, प्रत्येक डिप्टी-स्पीकर, परिषद के प्रत्येक अध्यक्ष और श्री बिड़ला और मेरे दोनों के लिए गर्व की बात है, वह यह है कि उन्होंने अपनी कठोरता दिखाई है कि नौकरशाही विधायिकाओं को हल्के में नहीं ले सकती, एक ऐसा मामला जो लगभग दो दशकों से लंबित था। यह दो दशक से भी कम का समय था। उन्होंने काफी दृढ़ता से निर्णय लिया और उन्होंने नरम हृदय से निर्णय लिया। मैं हर किसी से उनके फैसले को पढ़ने की अपील करूंगा, बात जब विशेषाधिकार के उल्लंघन की आई, तो उन्होंने कुछ अधिकारियों को अभियुक्त बनाया, उन्होंने विधायिका की सर्वोच्चता को प्रतिष्ठापित किया। उन्होंने ढिलाई नहीं बरती। हमारा परम कर्तव्य है कि हम विधायिका के प्रति सम्मान को लागू रखें जिसका अर्थ है बड़े पैमाने पर लोगों के लिए सम्मान की भावना रखना।
उसने उन्हें प्रतीकात्मक रूप से, लेकिन प्रभावी ढंग से दंडित किया। मुझे यकीन है कि उस निर्णय का यहां उपस्थित हर कोई परखना चाहेगा। सीपीए अध्यक्ष श्री इयान लिडेल-ग्रेंजर को मैं लंबे समय से व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूं। अभी हाल ही में मेरी उनसे बातचीत हुई थी। लेकिन सीपीए के साथ मेरा जुड़ाव तीन दशकों से भी अधिक पुराना है। जब मैं एक मंत्री था, एक कनिष्ठ मंत्री था और निश्चित रूप से उस समय एक युवा व्यक्ति था। मैं दिल्ली में सीपीए के आयोजन में एक समन्वयक था। मैं सीपीए के महत्व को जानता हूं और इसलिए यहां उनकी उपस्थिति हमारे लिए बहुत मायने रखेगी। मैं इस अवसर पर उन्हें यह बताना चाहूंगा कि सीपीए एक काफी क्रियाशील निकाय है। प्रतिनिधित्व इसका एक हिस्सा है। लेकिन अब यह आवश्यक हो गया है कि सीपीए सचिवालय में विश्व के 1/6 मानव आबादी में से मानव संसाधन की भागीदारी को बढ़ाया जाए। इससे सीपीए सचिवालय को मदद मिलेगी, इससे अच्छा माहौल पैदा होगा और मुझे यकीन है कि न उनसे वरिष्ठ स्तर का कोई व्यक्ति इस पर गौर करेगा। श्री संयम लोढ़ा, सचिव सीपीए एक ऊर्जावान व्यक्ति हैं, जिन्हें मैं लंबे समय से जानता हूं, और उनके बारे में अधिक कहने का जोखिम नहीं उठाऊंगा, लेकिन उनके लिए सर्वश्रेष्ठ अभी आना बाकी है। हमारे संसद के तीन मित्र सदस्य हैं और मुझे यहां उनकी उपस्थिति को अवश्य स्वीकार करना चाहिए। श्री राजीव शुक्ल राज्यसभा के काफी वरिष्ठ सदस्य हैं। मैं विशेष रूप से उनका आभारी हूं, क्योंकि मैंने उनसे अनुरोध किया था कि उनकी वरिष्ठता और सीपीए अध्यक्ष की उपस्थिति को देखते हुए उनकी भागीदारी से कार्यवाही के स्तर में बढ़ोत्तरी होगी। हमारे यहां श्रीमती सुलता देव हैं, जो राज्यसभा की एक महिला सदस्य हैं और जिन्होंने एक बेहद प्रभावी महिला अध्यक्ष बनकर संस्था को गौरवान्वित किया। मुझे यकीन है कि उन्हें यहां बहुत कुछ हासिल होगा। हमारे यहां लोकसभा से श्री उदय प्रताप जी हैं, जो मध्य प्रदेश से हैं।
मित्रों, विधायिका तब तक कार्य नहीं कर सकती जब तक हमारे पास मेरूदंडीय रूप से मजबूत सचिवालय न हो और विशेष रूप से लोक सभा इस मामले में सौभाग्यशाली है कि उसके पास श्री उत्पल कुमार सिंह, वरिष्ठ आईएएस अधिकारी के रूप में एक बहुत ही अनुभवी व्यक्ति मौजूद हैं,जो अपने काम के प्रति बेहद समर्पित व्यक्ति हैं। हमारे पास राज्य सभा के सचिव श्री राजित पुनहानी एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी हैं, जो अपने काम के प्रति उसी तरह से प्रतिबद्ध हैं। मैं इस महत्वपूर्ण अवसर पर माननीय स्पीकर, डिप्टी स्पीकर, सचिवालय के सदस्यों, राज्य सरकार के माननीय मंत्रियों और विशिष्ट अतिथियों का स्वागत करता हूं।
मित्रों, आज के समापन पर इस विशिष्ट सभा को संबोधित करते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है और जहां तक मैं समझ पा रहा हूँ यह 9वां राष्ट्रमंडल संसदीय संघ, भारत क्षेत्र सम्मेलन बहुत उपयोगी विचार-विमर्श रहा है। और यह झीलों के शहर में आयोजित किया जा रहा है। मुझे यकीन है कि आप सभी ने यहां बहुत सुखद और आरामदायक समय बिताया होगा। हम सभी जानते हैं: सीपीए इंडिया क्षेत्र लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों की रक्षा करने और उन मूल्यों को आगे बढ़ाने के लिए समर्पित है, जिन्हें बनाए रखने के लिए इसका मूल संघ अथक प्रयास करता रहता है। दुनिया हमें बहुत अच्छे से जानती है; हम लोकतंत्र की जननी हैं। हम सबसे बड़े लोकतंत्र हैं; हमारे यहां विश्व की कुल जनसंख्या का 1/6 हिस्से का वास है। और हमारा लोकतंत्र दुनिया में अद्वितीय है, क्योंकि भारत में ग्राम स्तर पर, पंचायत स्तर पर, जिला परिषद स्तर पर, राज्य स्तर पर और केंद्रीय स्तर पर संवैधानिक रूप से लोकतंत्र की संरचना की गई है। यह मंच हमें उन गंभीर चुनौतियों जिनसे वर्तमान में विधायिकाएं और राष्ट्र आक्रांत हैं, से संबंधित गहन विचार-विमर्श में शामिल होने का अनूठा और अद्वितीय अवसर प्रदान करता है।
मित्रों, सम्मेलन के दो विषयों में से एक विषय की अत्यंत सामयिक प्रासंगिकता है। यह विषय समसामयिक प्रभाव वाला है, यह हमसे सीधे सवाल पूछ रहा है, यह स्पष्ट संकेत है जिसका समाधान किये जाने की आवश्यकता है। इसमें अब और देरी नहीं की जा सकती और यह लोकतांत्रिक संस्थाओं के माध्यम से देश को मजबूत करने में जन प्रतिनिधियों की भूमिका है। मैं सीपीए सचिवालय को इस विषय को उन लोगों द्वारा विचार-विमर्श के लिए चुनने के लिए बधाई देता हूं जो विधायिकाओं के प्रदर्शन और उनके आउटपुट में सर्वोच्च हितधारक हैं।
मुझे यकीन है कि विचार-विमर्श तकनीकी पहलू के साथ-साथ सभी प्रतिभागियों हेतु दूसरे भाग के लिए फायदेमंद अनुभव रहा होगा।
मित्रों, जनता के प्रतिनिधि के रूप में प्रत्येक विधि निर्माता का संवैधानिक और नैतिक उत्तरदायित्व है कि वह लोगों के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने की दिशा में ठोस और सार्थक समाधान तलाशने हेतु जोरदार प्रयास करे। जब लोग विधि निर्माता चुनते हैं तो उनकी यही अपेक्षा होती है कि वह व्यक्ति विधायिका के रंगमंच पर उनका प्रतिनिधित्व करे। उन्हें बहुत उम्मीदें होती हैं।
अब समय आ गया है जब हमें वास्तविकता की जांच करने में लग जाने की आवश्यकता है क्या हम वास्तव में उनकी उम्मीदों पर खरे उतर रहे हैं?
जन प्रतिनिधियों को लोगों के लिए आदर्श के रूप में माना जाता है। उनसे ऐसे आचरण प्रस्तुत करने की अपेक्षा की जाती है जो दूसरों के लिए अनुकरणीय हो। जब हम अपने भीतर झांकते हैं, जब हम विचार और चिंतन करते हैं, तो हम एक चिंताजनक परिदृश्य पाते हैं। हमें जमीनी हकीकत पर ध्यान देना होगा।
मित्रों, मैं दु:ख और जिम्मेदारी के गंभीर भाव के साथ कह रहा हूं कि संदेह में नहीं रहें और इसमें किसी भी तरह का कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि जन प्रतिनिधियों की संस्था गंभीर तनाव में है। उनकी प्रतिष्ठा, उनका आचरण, उनका योगदान गंभीर तनाव में है।
संवाद, विचार-विमर्श, वाद-विवाद और विचार-विमर्श के लिए बने लोकतंत्र के मंदिर इन दिनों विधि निर्माताओं, जन प्रतिनिधियों के कारण अशांति और विघटन के बड़े केन्द्र बन गए हैं।
ऐसे अहितकर परिदृश्य के परिणामस्वरूप, संसद और विधानमंडल तेजी से अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। अपने अंदर झांक कर देखिये, जब विधायिका की बैठक होती है, संसद की बैठक होती है, तो परेशानी किसे उठानी पड़ती है? कौन सा स्थान ग्रहण किया जाता है? क्या धारणा उत्पन्न होती है? केवल व्यवधान और गड़बड़ी या अनियंत्रित आचरण के लिए बहिष्कार की ही सूचना प्रकाशित होती है। यह भयावह स्थिति लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए शुभ संकेत नहीं है।
शासन में कार्यकारी जवाबदेही और राजकोषीय अनुशासन सुनिश्चित करना जन प्रतिनिधियों की सर्वोपरि भूमिका है। जन प्रतिनिधि सबसे महत्वपूर्ण रंगमंच पर जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके पास कार्यपालिका की, सरकार की जवाबदेही तय करने की शक्ति है। उन्हें राजकोषीय विवेक को सुरक्षित करने के काम में लगना होगा। क्या हम ऐसा कर रहे हैं?
निश्चित रूप से, हम ऐसा कर सकते हैं। निश्चित रूप से, हमें यह अवश्य ही करना चाहिए। निश्चय ही यह हमारे शपथ के अंतर्गत निहित दायित्व है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है।
मित्रों, याद रखें, देश में कार्यपालिकाओं की उपलब्धियाँ बहुत ऊँची हैं। राजमार्ग अवसंरचना, रेल, सड़क, संपर्क, बड़ी-बड़ी परियोजनायें, गांवों में डिजिटल पहुंच सराहनीय कार्य हैं। न्यायपालिका भी इसी तरह से अपना कार्य कर रही है।
लेकिन तीसरी सबसे अहम और शासन-व्यवस्था की महत्वपूर्ण चीज विधायिका किस तरह से कार्य-निष्पादन कर रही है? हमें यह देखना होगा; हम लोगों को सेवा प्रदान करने या उस तरह से प्रदर्शन करने जैसा हमले अपेक्षित है, से काफी दूर हैं।
उदारतापूर्वक उपहार का वितरण करके लोगों को राजनीतिक उन्माद में लाने पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। हम चारों ओर क्या देखते हैं...विज्ञापनों को देखें, राज्य सरकारों के प्रदर्शन को देखें। देखिये कि सार्वजनिक राजकोष का किस तरह से उपयोग किया जा रहा है। इस पर नियंत्रण रखना किसे है? यह जानने के लिए आपको महान अर्थशास्त्री होने की आवश्यकता नहीं है कि आपका पर्याप्त मात्रा में पूंजीगत व्यय के लिए होना चाहिए।
आपको मानव संसाधन को सशक्त बनाना होगा, क्षमता निर्माण के लिए आपको उनके दिमाग और दिल तक पहुंचना होगा - जबकि इसके विपरीत आप उनकी जेब पर हमला कर रहे हैं।
यह ऐसी बात है जिसके बारे में कानून-निर्माताओं को सोचना होगा। लोगों को रिश्वत देकर उनकी जेब तक पहुंचने का यह राजनीतिक उन्माद एक अल्पकालिक सफलता की कहानी हो सकती है, लेकिन राष्ट्र के लिए एक दीर्घकालिक क्षति है और दुनिया में ऐसे कई देश हैं जो इस तरह की स्थितियों के कारण बुरी तरह से चरमरा गए हैं। सौभाग्य से हमारी शासन-व्यवस्था बहुत प्रभावी है और आर्थिक वृहत् मानदंड नियंत्रण में हैं, लेकिन इसके बारे में कौन सोचेगा? लोगों ने यह सोचने का काम प्रतिनिधियों को सौंपा है। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो चीजें मुश्किल स्थिति में होंगी।
हमें यह स्वीकार करना चाहिए और मैं इस बात को बड़े दुख के साथ कह रहा हूं कि एक निष्क्रिय विधायिका में लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करने की क्षमता है और यह लोकतंत्र के फलने-फूलने में बाधा बनेगी। यदि विधायिका काम नहीं करती है, तो लाभ किसे मिलता है? सरकार! राहत किसे मिलती है, नौकरशाह को। यदि विधायिका काम नहीं करती है, तो इसका मतलब है कि प्रतिनिधियों को मुद्दों को उठाने के लिए नीति बनाने का अवसर नहीं मिलता है। यह बिल्कुल ऐसी चीज़ है जिसमें हमारी विचार प्रक्रिया शामिल होनी चाहिए।
किसी भी लोकतंत्र में संसदीय संप्रभुता अनुल्लंघनीय है। सभी संगठनों - कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका में विधायिका सर्वोच्च है। हमने विधायिका को कमजोर बना दिया है। हमने इसे असुरक्षित बना दिया है क्योंकि हमने अपनी शपथ को सही साबित करने से इनकार कर दिया है।
हमने अपने कर्तव्यों पर ध्यान नहीं दिया है। हमने अपने कार्य को बहुत हल्के में लिया है। इस कमरे में मौजूद लोगों के पास प्रेरित करने, एक भावना पैदा करने, एक ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र बनाने की क्षमता है जिससे सभी विधि-निर्माता यह समझें कि वे ऐसे आचरण में शामिल होकर कितना नुकसान कर रहे हैं जिसकी उनसे अपेक्षा नहीं की जाती है।
लोकतंत्र की सफलता के लिए विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका को सामंजस्य के साथ काम करना चाहिए, मिलकर और एकजुट होकर काम करना चाहिए लेकिन अकेले संसद, उनके भी विधायिका प्रतिनिधियों के माध्यम से लोगों की भावनाओं का संग्रह है।
लेकिन अपने मूल को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं। हम आधारभूत रूप से इतने कमजोर होते जा रहे हैं कि अपनी बात भी नहीं कह पाते और हमारे यहां घुसपैठ हो रही है जो शासन के लिए ठीक नहीं है। मैं प्रत्येक विधि-निर्माता से अपने अंतर्मन से सोचने, अपनी पार्टी के साथ तार्किक आधार पर जुड़ने की अपील करता हूं। आप अपने मूल को नुकसान पहुंचाकर कोई कार्य नहीं कर सकते। आप निष्क्रिय हो जायेंगे।
विधायिका की प्रभावी और उत्पादक कार्यपद्धति लोकतांत्रिक मूल्यों की समृद्धि की निरापद गारंटी है। कल्पना कीजिए अगर विधायिकाएं बिना किसी व्यवधान, बिना किसी बाधा के कार्य करती हैं, वाद-विवाद चलता रहता है, तो निश्चित रूप से हमारे पास बेहतर कानून होंगे। माननीय वक्ता बिल्कुल सही थे, हम कानून बनाते हैं और लोगों को वर्षों तक इसके बारे में पता नहीं चलता है। क्योंकि कानून बिना भागीदारी के पारित किये जाते हैं। मुझे लोगों को यह बताते हुए बहुत दुख और पीड़ा हो रही थी कि जब आप संसदीय मंच - लोक सभा, राज्य सभा या विधान सभा से बहिर्गमन करते हैं, तो वास्तव में आप उस संसदीय मंच से बाहर नहीं निकल रहे होते हैं, उस स्थिति में आप अपने कर्तव्य से विमुख हो रहे होते हैं। आप अपने दायित्वों से विमुख हो रहे होते हैं। आप लोगों का विश्वास खो रहे होते हैं। लोगों के विश्वासभाजन के रूप में आपकी भूमिका समाप्त हो रही है और आपके पास यह जानने का कोई कारण नहीं है कि आप आखिरकार बहिर्गमन क्यों कर रहे हैं।
बार-बार होने वाले व्यवधानों के परिणामस्वरूप बर्बाद हो जाने वाले मूल्यवान संसदीय समय से हमें अब अवश्य कम से कम सामूहिक तौर पर आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। संसद अपनी गहन संवैधानिक जिम्मेदारियों को निभाने में चूक गई। लोकतंत्र के मंदिरों में अव्यवस्था के ये मामले नये मानक बन गये हैं। यह मान लिया गया है कि पूरे सत्र की कार्यवाही बर्बाद हो जाएगी। मणिपुर का उदाहरण लीजिए। लोकसभा में, जहां माननीय लोक सभाध्यक्ष करते हैं, माननीय गृह मंत्री ने बड़े पैमाने पर लोगों को मणिपुर के बारे में जानकारी प्रदान की। माननीय प्रधान मंत्री ने सूक्ष्म स्तर पर विस्तार से जानकारी दी लेकिन राज्यसभा में 20 जुलाई को मैं इस पर चर्चा के लिए सहमत होने वाला पहला व्यक्ति था। यह अंत तक फलीभूत नहीं हुआ। हर किसी के लिए यह सोचने का समय है कि वरिष्ठों की सभा, उच्च सदन, जो लोक सभा के विपरीत निरंतर चलने वाला सदन हैं , वाद-विवाद, चर्चा नहीं कर सकता- क्यों?
मित्रों, इस अवसर पर, मुझे डॉ. बी आर अंबेडकर की कही बात याद आती है और मैं उसे उद्धृत करता हूं, "जब तक हम संसद में अपनी जिम्मेदारियों का अहसास नहीं करते हैं और एक उचित समय के भीतर लोगों के कल्याण और भलाई का कार्य नहीं करते हैं, तो मेरे मन में इस बात पर जरा भी संदेह नहीं है कि बाहर जनता इस संसद को उपेक्षा की दृष्टि से देखेगी।"
डॉ. अम्बेडकर ने यही कहा था। हमने उन्हें भविष्यवक्ता साबित कर दिया है। लोगों के मन में हमारे लिए कोई सम्मान नहीं है। लोग कार्यपालिका के प्रति सम्मान रखते हैं। कार्य-निष्पादन कर रही है, सेवा प्रदायगी प्रदर्शनी कर रही है, यह आपको गैस कनेक्शन दे रही है, यह आपको राजमार्ग, हवाई अड्डे दे रही है। यह आपको शौचालय, हर नल में जल मुहैया करा रही है। हम क्या कर रहे हैं? हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए ताकि हमें पता हो कि हम कहां हैं।
मित्रों, अब हम गंभीर वास्तविकता का सामना कर रहे हैं। हम सभी संविधान के निर्माता की इन भविष्यसूचक चिंताओं और हमारे गणतंत्र के संस्थापकों की चेतावनियों के प्रति सचेत रहने की प्रतिज्ञा करें और संकट की स्थिति से उबरें। हम अधर में लटक रहे हैं। हम पकड़ खोने वाले हैं। यदि सांसद, जनता के प्रतिनिधि संसद में सार्वजनिक स्थान पर अपना अधिकार नहीं रखते तो अन्य लोग बाहर अपना अधिकार जमाएंगे। हमारा प्रतिनिधि संवैधानिक शपथ के अधीन है। अन्य नहीं हैं। निश्चित रूप से ऐसी स्थिति नहीं हो सकती जिसकी हम कल्पना कर रहे हैं।
माननीय सदस्यों, एक मार्मिक प्रश्न है, जो मेरे मन पर भारी बोझ के रूप में पड़ा हुआ है। जब सदस्य सशक्त वाद-विवाद में शामिल होने का अमूल्य अवसर गँवा देते हैं और सरकार को जवाबदेह ठहराते हैं, तो वास्तव में इसका दोष किस पर जाता है? मैं किसे दोष दूं? राज्य सभा के सभापति के रूप में मुझे या लोक सभाध्यक्ष के रूप में श्री बिड़ला को? इसका दोष सदस्य विशेष को, उनकी राजनीतिक पार्टियों या बड़े राजनीतिक गठबंधनों को जाता है जिनके प्रति वे अपनी निष्ठा की प्रतिज्ञा करते हैं?
अब, जब मैं सदस्य विशेष से बात करता हूं, तो वे सर्वश्रेष्ठ मानव संसाधन हैं। वे वाद-विवाद करना चाहते हैं।मुझे समझ में नहीं आता कि जब वे सदन में आते हैं, तो क्या हो जाता है। सब कुछ लुप्त हो जाता है, जिसका यही अर्थ है कि वे अपने राजनीतिक आकाओं और हाकिमों को यह नहीं समझा पाते हैं कि यह सब उनके संवैधानिक कर्तव्यों के निर्वहन के रास्ते में नहीं आता है। राजनीति महत्वपूर्ण है। आप अपनी इच्छानुसार राजनीति करते हैं लेकिन आप हर समय राजनीति नहीं कर सकते। आप हर समय राजनीतिक चश्मा लगाकर नहीं रख सकते। राष्ट्र से जुड़े मुद्दे सत्ता और विपक्ष सभी के लिए चिंता का विषय है।
अब, हम पीठासीन अधिकारियों के रूप में क्या करते हैं? हम एक गंभीर स्थिति का सामना करते हैं। मैंने राज्य सभा के सभापति के रूप में सामना किया है। प्रत्येक अशोभनीय कृत्य के लिए, प्रत्येक ऐसे व्यवहार के लिए जिसे लोग स्वीकार नहीं करेंगे, प्रत्येक व्यवहार जो नियम के विरुद्ध जाता है, उनके पास एक पुरानी मिसाल है कि ऐसा 2011 में किया गया था, ऐसा 1997 में किया गया था। हमें आज यह तय करना चाहिए कि जो गलत है वह गलत है, जो अशोभनीय है वह अशोभनीय है। हम अपनी गलती को इसलिए सही नहीं ठहरायेंगे क्योंकि ऐसी ग़लती उस शासन में पहले भी हो चुकी है। दुनिया बदल रही है। भारत उदीयमान है। यह अविरल है। हम विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। हमने अपने पूर्ववर्ती औपनिवेशिक शासकों को परास्त किया है, जिन्होंने हम पर सदियों तक शासन किया। दशक के अंत तक हम तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होंगे।
वैश्विक संस्थाएं संकेत दे रही हैं कि भारत निवेश और अवसर का पसंदीदा स्थान है। इस परिदृश्य में, हम अपनी ही जंजीरों में कैसे बंधे रह सकते हैं?
मित्रों, मेरा दृढ़ विश्वास है कि सरकार और विपक्ष संसदीय लोकतंत्र के ढांचे के अंदर अपरिहार्य भूमिका निभाते हैं। सरकार और विपक्ष के बीच तालमेल महत्वपूर्ण है। यह गायब क्यों है? क्या हम यहां विधायिका में प्रशंसा पाने के लिए हैं?
नहीं, हमारा उद्देश्य बड़े पैमाने पर लोगों की सेवा करना है। हम उस संपूर्ण गतिविधि से बहुत दूर हैं। ऐसी संसद जहां सरकार और विपक्ष मिलकर काम करें वह हमेशा राष्ट्र के हित में होती है।
प्रत्येक विधि-निर्माता का संसद के कक्ष में अपना एक स्थान होता है, वह इतिहास का हिस्सा बन जाता है। वह एक गौरवशाली नागरिक बन जाता है।
मैं यह समझ नहीं पाता कि इतना अलंकरण, सम्मान पाने तथा इतिहास का हिस्सा बनने के बाद .... एकमात्र उपलब्धि है: गैर-निष्पादन, खराब प्रदर्शन, अशोभनीय व्यवहार। यह कोविड से भी अधिक खतरनाक है। अब समय आ गया है कि हम इसका समाधान खोजें।
जो कुछ दशक पहले भारत को सलाह दिया करते थे, वे अब हमारी सलाह ले रहे हैं क्योंकि एक राष्ट्र के रूप में हमारा उत्थान हुआ है। भारतीय प्रतिभा वैश्विक कॉरपोरेट्स को प्रभावित कर रही है। वे वैश्विक अर्थव्यवस्था में योगदान दे रहे हैं और हमें विधि-निर्माताओं के रूप में आत्मनिरीक्षण, चिंतन और सुधार करना होगा।
भारत में हमारे पास विकास का एक आशाजनक पथ है। यह वृद्धिशील है। सभी तत्व जिनके लिए दुनिया हमसे ईर्ष्या कर रही है, दुनिया स्तब्ध है क्योंकि सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं संघर्ष कर रही हैं, हम प्रभावित नहीं हो रहे हैं। मैं आपको उदाहरण के माध्यम से बता सकता हूं कि 2022 में दुनिया में 46% डिजिटल लेनदेन भारत से थे। हमारा डिजिटल लेनदेन संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की तुलना में चार गुना था। हमारी इंटरनेट की प्रति व्यक्ति डेटा खपत अमेरिका और चीन की तुलना में अधिक थी। हमारे लोग हर कार्य-निष्पादन कर रहे हैं। हमें बदलाव दिखता है।
मैं 1989 में एक संसद सदस्य के रूप में आपके जिस स्वप्न को देख नहीं सका, वह वास्तव में आज एक जमीनी हकीकत है। मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि स्वच्छ भारत अभियान, हर घर में शौचालय, हर नल में जल, हर घर में बिजली, हर गांव से संपर्क हो पाएंगे। यह मेरे जीवनकाल में ही फलीभूत हुआ है।
यदि विधि-निर्माता, जन प्रतिनिधि अपनी शपथ के प्रति जवाबदेह होते, जनता के प्रति जवाबदेह होते, तो हम बहुत बेहतर किए होते। उन्होंने बंधन में रहने के बजाय लोगों के ट्रस्टी के रूप में कार्य किया और यह बंधन लोकतांत्रिक नहीं है। यह लोकतांत्रिक मूल्यों के मूलतत्व को बाहर कर देता है।
विपक्ष की प्रमुख भूमिका क्या है? विपक्ष जन प्रतिनिधियों के माध्यम से कार्य करता है। कहाँ? सड़क पर नहीं, जैसा वे कभी-कभी करते हैं। उन्हें यह सभा पटल पर करना है, चाहे वह संसद हो या विधानमंडल। उन्हें जवाबदेही, पारदर्शिता उत्पन्न करनी होगी; यदि आप सभा से बहिर्गमन करते हैं, तो ऐसा नहीं किया जा सकता।
मैं हर किसी से, विशेष रूप से यहां उपस्थित लोगों से अपील करूंगा कि वे सोचें और इस संस्थान को प्रभावशाली, प्रभावी, मर्मज्ञ और परिणामोन्मुख बनाएं। सरकार की आलोचना करना विपक्ष की भूमिका है, जो सभा के सामने हो सकता है, उस अवसर को खो दिया जा रहा है।
ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर हमें इस सभा में बहस करने की जरूरत है। हमारा देश ऐसा है जिसकी मजबूत न्यायिक व्यवस्था है। न्यायिक प्रणाली तक पहुंच उच्चतम गुणवत्ता की है, हाल की घटनाओं ने यह दिखाया है। लेकिन जब भी किसी को कोई सूचना दी जाती है, तो वे तुरंत सड़कों पर उतर आते हैं। मैं इस मंच से अपने युवाओं से अपील करता हूं: उनके लिए समय आ गया है। वे इस देश की शासन-व्यवस्था के सबसे बड़े हितधारक हैं। उनका भविष्य दांव पर है। वे 2047 के भारत के सैनिक हैं। उन्हें यह सुनिश्चित करने के लिए अपने निर्णय, विवेक और विकल्प का प्रयोग करना चाहिए कि उनके प्रतिनिधि सही ढ़ंग से अपना काम करें। उन्हें यह निर्णय लेना होगा।
मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश में जिस तरह का पारितंत्र विकसित हो रहा है, वर्ष 2047 में जब भारत आज़ादी की शताब्दी मना रहा होगा, तो यह शीर्ष पर होगा। यदि इतने बड़े हवन में, इतने बड़े यज्ञ में हर कोई अपनी आहुति दे रहा है, वो आहुति नहीं दे रहे हैं जिनका परम कर्त्तव्य है, जिनके लिए आवश्यक है, वो जनता के प्रति अपनी वफादारी दिखाएं।
संसद या विधायिका का एक भी सदस्य विधायिका और संसद में समुचित कार्य करके सरकार को सही दिशा दिखा सकता है।
....वो जमाने चले गए जब मैं पार्लियामेंट की हिस्ट्री को देखता हूं , भूतकाल में जाता हूं शासक दल के पास बहुसंख्या होती थी, पर प्रतिपक्ष इतना मज़बूत होता था, एक एक व्यक्ति प्रश्न पूछता था, तैयारी करता था, अपनी बात कहता था, बात का असर होता था,जनता के अंदर एक भावना जागृत होती थी और एक समुद्र बन जाता था। वो सब पता नहीं बातें कहां गईं, आज के दिन आपसी बर्ताव आक्रोशपूर्ण हो गया है, जब देश में अब कुछ ठीक चल रहा है…
हमें दुनिया की हर बात पर सहमत होने की ज़रूरत नहीं है। हम असहमत होने पर सहमत हो सकते हैं लेकिन हम उससे बहुत आगे निकल चुके हैं।
मित्रों, हमारा संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है लेकिन विधि निर्माताओं को एक अनोखी स्वतंत्रता है - वे संसद या विधानमंडल के पटल पर कुछ भी कहते हैं, एक सौ चालीस करोड़ जनता भी मुकदमा नहीं कर सकती, ना दीवानी मुकदमा कर सकती है न फौजदारी मुकदमा कर सकती है, इतना बड़ा अधिकार मिलता है लेजिस्लेटर को कि विधानसभा या सदन के अंदर कुछ भी कहें, मुकदमा नहीं होता, पर ये बेलगाम बात नहीं है, ये गंभीर विषय है आप इसका दुरुपयोग नहीं कर सकते, इसका दुरुपयोग यदि होता है तो सबसे ज्यादा ज़िम्मेदारी उन लोगों पर है जो यहां बैठे हैं…तब हम दया नहीं कर सकते। हम संरक्षक हैं-एक सौ चालीस करोड़ लोगों की हिफ़ाज़त हम करेंगे, हम ये इजाजत नहीं दे सकते की अनर्गल बात, गलत बात, तथ्यहीन बात, तथ्यों से परे बात, आप तुरन्त कह दो और अकाउंटबिल्टी नहीं लो, ये चिंतन का विषय है इस पर मंथन करना चाहिए जरूर अच्छा निष्कर्ष निकलेगा।
मित्रों, मुझे यकीन है कि इन दो दिनों की चर्चाएँ बहुत ज्ञानवर्धक रही होंगी और इस प्रकार आप घर के लिए काम लेकर जायेंगे।
महामहिम राज्यपाल राजस्थान इस क्षेत्र के बहुत बड़े अनुभवी हैं, भीष्म पितामह है, इनके मुकाबले के बहुत कम देश में हैं इन्होंने भावुक तरीके से अपनी बाते कही है, मैं कुछ बातें खुलकर कह रहा हूं, आपने वो बातें दबी जबान में कही है, पर कुछ शंका नहीं रखी है समय बीतता जा रहा है देश के लिए नहीं, समय बीतता जा रहा है पब्लिक रिप्रेजेंटेटिव के लिए कि वो कितना खरा उतरता है, वो कितना योगदान कर पाता है, या वह पार्लियामेंट या संसदीय व्यवस्था के उपर इतना कुठाराघात करता है की जनता का उस पर विश्ववास नहीं है, कि मुद्दे संसद में नहीं, संसदीय व्यवस्था में नहीं उसके बाहर तय होंगे, ये हमारे लिए एक अच्छी बात नहीं है, मुझे समझ में नहीं आता और सामान्य आदमी को भी नहीं आता इसमें कोई बहुत विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है, मैं विद्वान बिलकुल भी नहीं हूं हम बातचीत से दूर कैसे हट सकते हैं, दूसरे की बात सुनने का मतलब ये नहीं है कि उसकी बात मान ली गई है पर ऐसा क्या की बात ही नहीं सुनेंगे, ये हालात में जब भी सदन चलता है रोज़ देखता हूं, मुझे बहुत पीड़ा होती है, लोग...
हमारे सत्ता के गलियारों को इन खतरनाक सत्ता दलालों से पूरी तरह मुक्त कर दिया गया है, आजकल कोई भी निर्णय का लाभ गलत रूप से नहीं उठा सकता है।
ऐसी परिस्थिति में हम और आगे बढ़ने का काम क्यों न करें, यदि अगर पब्लिक रिप्रेजेंटेटिव यदि ठान लें तो इसमें कोई संदेह नहीं है मुझे, भारत की छलांग और भी ज्यादा तीव्र हो जायेगी, छोटे मोटे राजनितिक फायदे के लिए देश की संस्थाओं को कलंकित करने की प्रवृत्ति है, मैं अंकुश की बात नहीं कर रहा उसको सोचना चाहिए आपको आश्चर्य होगा, दुनिया के किसी भी देश के विद्यार्थी विदेश में हैं उनके प्रोफ़ेसर विदेश में हैं सिवाय भारत के और किसी देश के नागरिक अपने देश की, मैं बहुत गलत शब्द कह रहा हूं, ऐसी तैसी नहीं करते, ऐसा क्यों हो रहा है।
मित्रों, मैंने काफी समय ले लिया है, अंत में, मैं उन प्रतिभागियों, वक्ताओं और आयोजकों के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिन्होंने इस सम्मेलन की चर्चाओं एवं अंतदृष्टि को समृद्ध बनाने में योगदान दिया है। लोकतांत्रिक सिद्धांतों और शासन व्यवस्था को मजबूत करने के प्रति सामूहिक समर्पण हमारे राष्ट्र की भलाई और प्रगति के प्रति अटूट प्रतिबद्धता का एक प्रमाण है। आइए हम सभी के लिए एक उज्ज्वल और अधिक समृद्ध भविष्य बनाने की दिशा में सामूहिक रूप से प्रयास करें।
मैं आपको डॉ. बी आर अंबेडकर की टिप्पणियों के साथ छोड़े जाता हूं: "संविधान केवल राज्य के अंग यथा विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का उपबंध कर सकता है, कारक जिन पर राज्य के उन अंगों का कामकाज निर्भर करता है वे लोग और राजनीतिक दल हैं।"
मैं आपलोगों को इसी विचार के साथ छोड़े जाता हूं। मैं डॉ. सी. पी. जोशी का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे झीलों के शहर-एक शानदार जगह- में होने और उन लोगों के साथ अपने विचार साझा करने का यह मूल्यवान अवसर प्रदान किया है, जिनमें से हर कोई बड़े बदलाव का नियंत्रक केंद्र और अधिकेंद्र है।
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!