12 अक्तूबर, 2022 को नई दिल्ली में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के स्थापना दिवस समारोह में माननीय उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ का संबोधन।

नई दिल्ली | अक्टूबर 12, 2022
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के 30वें स्थापना दिवस समारोह में शामिल होकर मैं अत्यंत प्रसन्न हूं।
  • समाज के वंचित और कमजोर वर्गों के मानवाधिकारों के संरक्षक होने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से जुड़े सभी व्यक्तियों को बधाई।
  • 'मानव अधिकार एक ऐसी शासन पद्धति में पोषित और विकसित होते हैं जहां कानून का शासन होता है न कि शासक का कानून' के दर्शन का प्रचार करने के लिए मैं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सराहना करता हूं।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समर्पित प्रयासों और उच्च मानकों की मान्यता का यह एक उपयुक्त उदाहरण है कि भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने लगातार चौथी बार राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं के वैश्विक गठबंधन, जीएएनएचआरआई में अपने 'ए' स्टेटस को बरकरार रखा है।
  • यह मानवाधिकारों के संबंध में हमारे राष्ट्र के उत्कृष्ट ट्रैक रिकॉर्ड को दर्शाता है।
  • मैं इस शानदार उपलब्धि के लिए न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के दूरदर्शी नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम को हार्दिक बधाई देता हूं।
  • मीडिया से मेरा आग्रह है कि आयोग की सलाहों को सार्वजनिक तौर पर प्रमुखता से प्रदर्शित करें। इससे देश में मानवाधिकारों के उद्देश्य को बढ़ावा देने में काफी मदद मिलेगी।
  • एक अवधारणा के रूप में मानवाधिकारों को केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा के परिरक्षण के संकीर्ण अर्थ में नहीं लिया जा सकता है। इन्हें व्यापक संदर्भ में समझना होगा।
  • मुझे नेल्सन मंडेला की यह तर्कपूर्ण सलाह याद आती है:

 “लोगों को उनके मानवाधिकारों से वंचित करना उनकी मानवता को ही चुनौती देना है। “

  • स्वतंत्रता का अर्थ है - हर जगह मानवाधिकार ही सर्वोच्च है।
  • मानवाधिकारों को सार्वभौमिक सम्मान देकर ही हम एक अधिक न्यायपूर्ण, सुरक्षित और शांतिपूर्ण विश्व का निर्माण कर सकते हैं।
  • हाल के वर्षों में, विशेष रूप से स्वास्थ्य और आर्थिक क्षेत्रों में, शासन के विभिन्न प्रणालीगत सुधारों और सकारात्मक पहलों से मानव अधिकारों को मौलिक बल मिला है।
  • हम जो व्यापक समावेशी विकास देख रहे हैं वह भी मानव अधिकारों के उल्लंघन का विरोधी है।
  • मानव अधिकारों के संरक्षण से एक सम्मानजनक जीवन का आश्वासन मिलता है। यह बात लगभग 400 मिलियन लोगों को बैंकिंग नेटवर्क में शामिल करने और 200 मिलियन से अधिक परिवारों को मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन से लाभान्वित करने से परिलक्षित होती है।
  • हमें हमेशा इस बात को समझना चाहिए कि कहीं भी मानवाधिकारों का उल्लंघन और अन्याय निश्चित रूप से हमारे ऐसे अधिकारों को कुछ हद तक क्षीण करता है।
  • मानवाधिकारों के लिए गंभीर चुनौतियां मुख्य रूप से हमारे अधिकांश नागरिकों के मौन रहने और उनके द्वारा आवाज नहीं उठाए जाने के कारण उत्पन्न होती हैं, जो वास्तव में एक ऐसा विषय है जिसे लोगों के बीच और ज्यादा स्पष्ट रूप से लाने की आवश्यकता है।
  • जब मानवाधिकारों के हनन की बात आती है तो हमें पक्ष अवश्य लेना चाहिए। तटस्थता अत्याचारी की ही मदद करती है, पीड़ित की कदापि नहीं। मौन हमेशा उत्पीड़क को प्रोत्साहित करता है, उत्पीड़ित को कदापि नहीं। ऐसी स्थिति में अग्रसक्रिय रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है और हमें हस्तक्षेप अवश्य करना चाहिए।
  • लोकतंत्र के फलने-फूलने के लिए मानवाधिकार अपरिहार्य हैं। मानवाधिकारों के अभाव में लोकतांत्रिक मूल्यों का कोई महत्व नहीं है। मानवाधिकारों का पोषण मनुष्य की गरिमा और उसकी गरिमामयी अस्तित्व के लिए अमृत समान है।
  • मानवाधिकारों के विकास से एक ऐसे सकारात्मक पारिस्थितिकी तंत्र का सृजन होता है जो मानव की प्रतिभा के इष्टतम उपयोग को सुकर बनाता है। इससे समग्र विकास होता है।
  • सरल शासन के साथ-साथ पारदर्शी और जवाबदेह तंत्र के प्रभावशाली विकास ने मानवाधिकारों के फलने-फूलने के लिए स्वस्थ वातावरण उपलब्ध कराया है। भ्रष्टाचार की स्थिति में मानवाधिकारों से समझौता किया जाता है। गरीब और कमजोर लोग इस खतरे के आसान शिकार होते हैं। भ्रष्टाचार पर लगातार की जा रही चोट इस दिशा में एक सकारात्मक संकेत है और कमजोर वर्ग इसके प्रमुख लाभार्थी हैं।.
  • मानवाधिकारों के लिए चुनौती कई पक्षों से उत्पन्न होती है, जिनमें से कुछ सरकारी और गैर-सरकारी निकाय (स्टेट एंड नन-स्टेट एक्टर), प्राकृतिक आपदाएं, विश्वव्यापी महामारी, गरीबी आदि हैं। न्यायिक कदमों और सरकारी पहलों ने मानवाधिकारों के सम्मुख खड़ी इन चुनौतियों को काफी हद तक नियंत्रित किया है।
  • कोविड विश्वव्यापी महामारी विश्व में मानवाधिकारों के लिए एक गंभीर चुनौती थी। मजबूत स्वास्थ्य अवसंरचना का दावा करने वाले देश डगमगा गए। हमारे देश में, सभी को स्वास्थ्य सुविधाएं और भोजन उपलब्ध कराने के विजन और रणनीति के साथ इस संकट को सराहनीय ढंग से नियंत्रित किया गया।
  • भारतीय संस्कृति की मानवाधिकारों का समर्थन करने वाली मूलभूत भावना बृहदारण्यक उपनिषद् के श्लोक 1.4.14 में परिलक्षित होती है:

सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माकश्चिद्दुःख भाग्भवेत्।।
इसका अभिप्राय है,
"सभी प्रसन्न रहें,
सभी रोगमुक्त रहें,
सबका कल्याण हो, किसी को कष्ट न हो।"

  • सह-अस्तित्व की संस्कृति हमारी दुनिया को अद्भुत और जीने योग्य बनाती है। विभिन्न प्रजातियों का सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व प्रकृति का एक ऐसा अधिदेश है जिसे मानव जाति द्वारा संकट में डाला जा रहा है। किसी को भी दूसरों के अधिकारों का उल्लंघन करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
  • हमें अपने संविधान के अनुच्छेद 51 क (छ) के तहत अपने कर्तव्य का निर्वहन करना चाहिए जो अपेक्षा करता है कि प्रत्येक नागरिक "प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे"।
  • सौभाग्य से भारत में केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर, मानवाधिकार संबंधी विनियमों का एक सुदृढ़ और मजबूत तंत्र है।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का, आवश्यक होने पर राज्य मानवाधिकार आयोगों को प्रेरित करना और उनको समर्थन एवं मार्गदर्शन प्रदान करना सराहनीय है।
  • आज का अवसर हमें आत्मनिरीक्षण करने का मौका प्रदान करता है कि मानवाधिकारों के संरक्षण और संवर्धन के लिए अब तक क्या किया गया है और क्या करने की आवश्यकता है।
  • समाज के कमजोर वर्गों के मानवाधिकारों का संरक्षण एक साझा जिम्मेदारी है और यह हमारे संविधान का सार-तत्व है।
  • मेरा सभी नागरिकों से आग्रह है कि दूसरों के मानवाधिकारों के संरक्षण और प्रोत्साहन के लिए कार्य करें, क्योंकि यह उनके अपने मानवाधिकारों के परिरक्षण की सबसे सुरक्षित गारंटी है।
  • मैं न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा को तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सभी सदस्यों, अधिकारियों और कर्मचारियों को उनके समर्पण भाव से किए गए कार्यों के लिए बधाई देता हूं।
  • आप सभी को मेरी शुभकामनाएं। धन्यवाद,

जय हिन्द!